Thursday 16 July 2015

 बारिश  का मौसम  आने  के साथ ही  पूड़े , मालपूड़े  और खीर  बनने  का  मौसम  आजाता।  घर घर  सिवई तोड़ी जाती।  पकोड़े  उस पर बोनस।  राखी  पर घेवर और चन्द्रकला  जरूर बनती।कनागत  में हलवा पूरी  की महक से पूरा मोहल्ला महकता क्योकि हर चीज देसी घी मे  पकाई जाती पितरो की संतुष्टि की बात ठहरी।  माँ जतन से पूरी शुद्धता के साथ एकएक  पकवान बनातीं।
 नागपंचमी के गुलगुले  और  चीले अलग ही स्वाद था।   दशहरे से घर घर कढ़ाई चढ़ जाती।  अड़ोस - पड़ोस  की लड़कियों को बुल्ल्वा भेजा जाता।  लड़कियाँ  सज धज कर आती।  कचौरी ,मठरी शककरपारे ,नमकपारे मैदा के सेव ,मटर  बालूशाही गुलाबजामुन  बन-बन कर थाल  के थाल सजते जाते।  कोई  बड़ी दूध ओटाने बैठती  खोया  बनता बर्फी कलाकंद जमाये जाते।  सब कुछ  साफ सुथरा  एकदम  ताज़ा कहीं कोई मिलावट नहीं।  इस बीच  कोई नखरीली अंदर से ढोलक  निकाल लाती।  लोक गीतों की  फुहार बरसती  कोई लड़की तलने बैठी किसी भाबी  को नाच का निमंत्रण  दे बैठती।  लजाई सकुचाई वधु  न न करती नाचना शुरू  करती तो अप्सराओ को पीछे छोड़ देती , फिर तो तेल में तले जाते पकवानो की छन छन और पायल की छम छम मिल कर वह समां बंधता कि  पूछो मत।  बारी बारी से सब के घरों में  दीवाली तक ऐसे ही चहल पहल रहती  और  कई  दिनों तक भंडार में कनस्तर  मिठाइयों से भरे रहते
सर्दी आते ही गाज़र का हलवा , मावे के लड्डू ,तिल कूट , पिन्नियाँ , चिकी, बननी  शुरू होती। बेसन की बर्फी और लड्डू  तो हर दुसरे दिन ताज़ा बनते और खाए जाते
 होली  की विशेष  तैयारियाँ  होती  तरह तरह के बाकी पकवान तो बनते ही।  साथ बनती अलग अलग तरह की कांजी।  बड़े बड़े घड़ो में काली गाज़र  में राई  काला  नमक के साथ जब मसाले मिलाये  जाते  तो लोग तारीफ करते रह जाते  दही भल्ले ,पापड़ी , और गुझिया  । उसके बिना होली कैसी।  हर घरमें  पकवानो की परात सजी होती।  आज स्वाद मिलावट और आलस्य में कहीं खो गए है